पिछले साल जब हरनावदा गए तो कुंवे पर भी गए। वहां गंभीर सिंह भैया ने हरा चना भून कर बच्चों को खिलाया। चना भूनने में सबने अपना अपना योगदान दिया। छोटा भाई सुरेन्द्र और उसके बच्चों, मेरी बेटी और प्रयाग के बच्चों ने भी हाथ बंटाया। इस कुंवे पर खेलते हुए और काम करते हुए ही मेरा अधिकांश बचपन बीता है। यही नहीं मैंने येहाँ यहाँ आम और अमरुद के पेड़ों की शाखों पर बैठ कर पढ़ा भी बहुत है। कवितांए और कहानियाँ भी लिखी है । दाल बाटी कई बार खाई। और सबसे बड़ी बात तो ये की यहाँ बचपन में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की 'पंचवटी' को पढ़ा था और (शायद) सुमित्रानंदन पन्त की जीवनी भी पढी थी। मेरे जाने तब ही मेरे मन में ये ख्याल आया था की मुझे भी ऐसा ही बनना है। और मैं कविता में या कविता की शब्दावली में सोचने लगा था। ये बात साल १९७५ से ७७ के बीच की होगी। इस समय तक मैं गंभीरसिंह भैया के पास इंदौर पढ़ने आ गया था। और क्योंकि छोटी क्लास में अपने उम्र के बच्चों के बीच गाँव में से मैं अकेला पढ़ने के लिए इंदौर गया था इसलिए अपने को 'ख़ास' समझाने लगा था। तो शायद मेरे मन में 'पंचवटी' और पन्त जी के बारे में पढ़ते हुए 'ख़ास' करने की इच्छा जागी होगी। ये इच्छा जहां जगी थी, वह खेत अभी भी वैसा ही है। वहां माँ के साथ निंदाई गुडाई करते हुए मेरे मन में कवि बनाने की इच्छा पैदा हुयी थी। अब पता नहीं क्या क्या बना हूँ, कविता, कहानी, लेख, सब लिखते हुए फोटोग्राफी और फिल्म बनाने का काम भी कर रहा हूँ। पर लगता है की कुछ भी बन जाऊं पर मेरा खेत और मेरा कुंवा आज भी मेरे कुछ बनने की राह देख रहा है। यदि कुछ बन पाया तो कुंवे और खेत ही मेरी जड़ होंगे, चाहे कहीं रहूँ। ... इसलिए फिलहाल कुंवे और खेत की याद में हरे चने भूनने के कुछ फोटोग्राफ नत्थी कर रहा हूँ। ये फोटो सन २००९ के हैं।
- अमी चरणसिंह
११ फरवरी २०१० इंदौर
Thursday, February 11, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
पर लगता है की कुछ भी बन जाऊं पर मेरा खेत और मेरा कुंवा आज भी मेरे कुछ बनने की राह देख रहा है। यदि कुछ बन पाया तो कुंवे और खेत ही मेरी जड़ होंगे, चाहे कहीं रहूँ। ..bahut sunder .isase aage kuchh kahate nahi ban raha hai.
ReplyDeleteहमारे यहाँ तो हरे चने को बूंट और भुने हुए को होरा कहते हैं... सालों हो गए खाए हुए
ReplyDeleteहरी चटनी या गुड़ के साथ
आपने खुशबू याद दिला दी..
कुछ भी बन जाऊं पर मेरा खेत और मेरा कुंवा आज भी मेरे कुछ बनने की राह देख रहा है।-सच कहा आपने!
ReplyDeleteरापने तो हमे भी बचपन की याद दिला दी जब हम भी हरे चने भून कर खाया करते थे पंजाब हिमाचक़्ल मे इसे *होलाँ* कहते हैं । अपनी जडों से जुडे रहना चाहिये सही मे वो आपकी राह देखते हैं। शुभकामनायें
ReplyDelete