पिछले दिनों प्राध्यापकीय साहित्य ज्ञान से अद्भुत तरीके का साक्षात्कार हुआ। मेरा अपने करियर के सिलसिले में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक अकादमिक स्टाफ कोलेज में हिंदी के कुछ कुढ़ मगज हिंदी प्राध्यापकों से सामना हुआ। यूँ पता था कि हिंदी का एक बहुत बड़ा वर्ग हिंदी साहित्य पढ़ता ही नहीं है.. पर इस बार ये भी पता चला कि हिंदी साहित्य को कुंजियों से पढ़नेवाला पढ़ानेवाला प्राध्यापक वर्ग हमारे देश में ज्ञानात्मक दुर्दशा के एक बड़े बुरे दौर से गुजर रहा है, ख़ास कर वो वर्ग जो अपने को वरिष्ठ कहलाता फिरता है और नारी विमर्ष के नाम पर राजेंद्र यादव, आलोचना पर नामवर सिंह और दलित विमर्ष के नाम पर पुरे हिंदी साहित्य को पारंपरिक गालियाँ देता है किन्तु साहित्य पढ़ता नहीं है।
कुछ प्राध्यापकीय ज्ञान के उदाहरण पेश कर रहा हूँ.... मुलाहिजा फरमाइए....
एक ने कहा उर्दू भाषा है ही नहीं। जो हिन्दुस्तान में बोली जाती है वो अरबी फारसी है और उर्दू उसकी लिपि है। इंदौर नगर के सफ़ेद बाल वाले इन प्राध्यापक महोदय ने १९६९ में पढ़ाना शुरू किया और आजकल सेवा निवृत्त हो चुके हैं। नाम है कोई यादव। यानी अपनी पूरी नौकरी के दौरान ये यही पढ़ाते रहे कि उर्दू लिपि है और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान बंगलादेश में जो बोली जा रही उर्दू है वो फारसी है.... एक दूसरी मोहतरमा ने कहा कि हिंदी में नई कविता केवल कवियों कि हताशा, कुंठा, निराशा का परिणाम थी। और प्रयोगवाद ही प्रगतिवाद था। हिंदी की एक लेखिका कहलाने के लिए बेचैन प्राध्यापिका महोदया ने कह डाला कि खेल के अनुवाद के लिए देवनागरी वर्तनी में अंगरेजी के शब्द को स्पोर्ट्स लिखा जाता है। पाठक यहाँ देख सकते हैं कि खेल का अंगरेजी अनुवाद देवनागरी वर्तनी में यूनिकोड भाषा में लिखने पर वर्तनी दोष आ जाता है। पर इससे हिंदी का मानकीकृत रूप नहीं बदला जा सकता.... इस तरह कई बातों में लगा कि हिंदी कि रोटी खाने वाले प्राध्यापकों का एक ऐसा वर्ग है जो हिंदी साहित्य का किताबी ज्ञान रखता है, भ्रमपूर्ण ज्ञान रखता है, और वो ही हिंदी साहित्य का नुक्सान कर रहा है... एक मजेदार बात और हुई, वो ये कि हिंदी का प्राध्यापक हिंदी साहित्य कि पत्रिकाएं लगभग नहीं खरीदता... केवल हंस को गाली देता है, किन्तु उसे पता ही नहीं है कि वागर्थ या वसुधा या नया ज्ञानोदय या प्रेरणा या साक्षात्कार जैसी पत्रिकाएं भी है... समकालीन भारतीय साहित्य कहाँ से छपता है, या साहित्य अकादेमी भोपाल में है, तो दिल्ली में क्या है, पता नहीं... हिदी के कुढ़ मगज प्राध्यापकों पर क्या रोना रोया जाये... जितना रोना रोया जाए कम ही है....
- अमी चरणसिंह
४ अक्टूबर २०१०
इन महानुभावों को साष्टांग.
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