Monday, October 4, 2010

हिंदी के कंगाल कुढ़ मगज प्राध्यापक

पिछले दिनों प्राध्यापकीय साहित्य ज्ञान से अद्भुत तरीके का साक्षात्कार हुआ। मेरा अपने करियर के सिलसिले में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक अकादमिक स्टाफ कोलेज में हिंदी के कुछ कुढ़ मगज हिंदी प्राध्यापकों से सामना हुआ। यूँ पता था कि हिंदी का एक बहुत बड़ा वर्ग हिंदी साहित्य पढ़ता ही नहीं है.. पर इस बार ये भी पता चला कि हिंदी साहित्य को कुंजियों से पढ़नेवाला पढ़ानेवाला प्राध्यापक वर्ग हमारे देश में ज्ञानात्मक दुर्दशा के एक बड़े बुरे दौर से गुजर रहा है, ख़ास कर वो वर्ग जो अपने को वरिष्ठ कहलाता फिरता है और नारी विमर्ष के नाम पर राजेंद्र यादव, आलोचना पर नामवर सिंह और दलित विमर्ष के नाम पर पुरे हिंदी साहित्य को पारंपरिक गालियाँ देता है किन्तु साहित्य पढ़ता नहीं है।

कुछ प्राध्यापकीय ज्ञान के उदाहरण पेश कर रहा हूँ.... मुलाहिजा फरमाइए....

एक ने कहा उर्दू भाषा है ही नहीं। जो हिन्दुस्तान में बोली जाती है वो अरबी फारसी है और उर्दू उसकी लिपि है। इंदौर नगर के सफ़ेद बाल वाले इन प्राध्यापक महोदय ने १९६९ में पढ़ाना शुरू किया और आजकल सेवा निवृत्त हो चुके हैं। नाम है कोई यादव। यानी अपनी पूरी नौकरी के दौरान ये यही पढ़ाते रहे कि उर्दू लिपि है और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान बंगलादेश में जो बोली जा रही उर्दू है वो फारसी है.... एक दूसरी मोहतरमा ने कहा कि हिंदी में नई कविता केवल कवियों कि हताशा, कुंठा, निराशा का परिणाम थी। और प्रयोगवाद ही प्रगतिवाद था। हिंदी की एक लेखिका कहलाने के लिए बेचैन प्राध्यापिका महोदया ने कह डाला कि खेल के अनुवाद के लिए देवनागरी वर्तनी में अंगरेजी के शब्द को स्पोर्ट्स लिखा जाता है। पाठक यहाँ देख सकते हैं कि खेल का अंगरेजी अनुवाद देवनागरी वर्तनी में यूनिकोड भाषा में लिखने पर वर्तनी दोष आ जाता है। पर इससे हिंदी का मानकीकृत रूप नहीं बदला जा सकता.... इस तरह कई बातों में लगा कि हिंदी कि रोटी खाने वाले प्राध्यापकों का एक ऐसा वर्ग है जो हिंदी साहित्य का किताबी ज्ञान रखता है, भ्रमपूर्ण ज्ञान रखता है, और वो ही हिंदी साहित्य का नुक्सान कर रहा है... एक मजेदार बात और हुई, वो ये कि हिंदी का प्राध्यापक हिंदी साहित्य कि पत्रिकाएं लगभग नहीं खरीदता... केवल हंस को गाली देता है, किन्तु उसे पता ही नहीं है कि वागर्थ या वसुधा या नया ज्ञानोदय या प्रेरणा या साक्षात्कार जैसी पत्रिकाएं भी है... समकालीन भारतीय साहित्य कहाँ से छपता है, या साहित्य अकादेमी भोपाल में है, तो दिल्ली में क्या है, पता नहीं... हिदी के कुढ़ मगज प्राध्यापकों पर क्या रोना रोया जाये... जितना रोना रोया जाए कम ही है....

- अमी चरणसिंह

४ अक्टूबर २०१०

Wednesday, May 26, 2010

अक्षय आमेरिया की कला : चेहरे के भीतर चेहरे ...2

अक्षय आमेरिया की कला प्रदर्सनी 'चेहरे के भीतर चेहरे' के बारे में इसके पहले की पोस्ट के बाद येहाँ दूसरा भाग पोस्ट कर रहा हूँ..... याने कुछ फोटो : पहले फोटो में हैं फोल्डर का विमोचन, दूसरे फोटो में है आई जी पवन जैन के साथ अक्षय आमेरिया, तीसरे फोटो में चित्रकार रमेश खेर और इशाक शेख के साथ अक्षय आमेरिया, चौथे फोटो में अक्षय के चेहरों का टी शर्त पर डिस्प्ले करते उनके मित्र..... और हाँ फोटो के बाद एक कविता भी है, डॉक्टर निवेदिता वर्मा की.....।
-अमी चरणसिंह।



इन फोटो में पहचानिए कौन कौन है... ?

पुनश्च ::
अक्षय आमेरिया की इस कला प्रदर्सनी का टाईटल डॉक्टर निवेदिता वर्मा कि एक कविता से लिया गया। ये कविता निमंत्रण पात्र पर छापी गयी है। कविता इस प्रकार है:
संवेदनाओं के शहर में
कैनवास के चेहरों में
रिश्तों की महक
खामोशी के बोल
सतरंगी नहीं फिर भी
जीवन के
हर रंग में रंगे
आत्म-संवाद करते
मन के भावों को पढ़ते
चेहरे के भीतर चेहरे।
-डॉक्टर निवेदिता वर्मा, उज्जैन
-अमी चरणसिंह , इंदौर
०९९२६५ ४८०६०

अक्षय आमेरिया की कला : चेहरे के भीतर चेहरे...1

पिछले दिनों २३ मई से २५ मई तक उज्जैन के कालिदास अकादमी की कला दीर्घा में मेरे प्रिय कलाकार अक्षय आमेरिया के बनाए ६२ चेहरों की कला प्रदर्शनी आयोजित हुईइस एक्सिबिसन के मौके पर १६ लीफ याने पन्नों का एक फोल्डर जारी किया गयाइस फोल्डर पर मेरे द्वारा लिखी गयी टिप्पणी को छापा गया हैअक्षय ने ही इसे डिजाईन किया हैइसकी ख़ास खूबी ये है कि हर पेज एक स्वतंत्र लीफ है, और हर लीफ पर एक चेहरा छपा है जिसके पीछे वरिष्ठ कवी प्रमोद त्रिवेदी जी की कविता दी गयी हैये कुल १२ कवितायेँ है

इस फोल्डर पर दिए गए मेरे आलेख को येहाँ पोस्ट कर रहा हूँउसी के साथ प्रमोद त्रिवेदी जी की एक कविता भी पोस्ट कर रहा हूँ

प्रदर्शनी की एक खासियत और रही की इस मौके पर प्रयोग के तौर पर अक्षय के बनाये चेहरों को टी शर्ट भी डिस्प्ले किया गयाइससे अलग प्रभाव पड़ा

इस मौके पर उज्जैन रेंज के आई जी श्री पवन जैन ख़ास तौर पर हाजिर थेउन्होंने दूसरे अतिथियों के साथ मिलकर फोल्डर का अनावरण किया था

इस मौके पर खींचे गए कुछ फोटोग्राफ्स भी आप येहाँ देख सकते है

पहले फोल्डर पर दिया गया मेरा आलेख :::-


अक्षय के चहरे : भीतरी बैचेनी का बयान

समकालीन भारतीय कलाकारों में अपने अलग कला स्वभाव के कारण अक्षय आमेरिया कि कला ध्यान खींचती हैउनकी अमूर्त कलाकृतियाँ देखकर ऐसा लगता है मनो वे रंग के अधिक्य के भीतर सेंध लगाते हुए अलौकिक-अद्भुत संरचनात्मक संसार को गढ़ते हैंइस मायने में वे आकर का विरूपण करते हुए स्वतः-स्फूर्त अनगढ़ता के सौन्दय का व्याकरण रचनेवाले कलाकार ठहरते हैंदरअसल उनकी कला अंतर्लोक से उपजती है, जो वस्तुतः विचार की कला हैहाल ही में मानव चेहरों को लेकर रची गयी उनकी चित्र-शृंखला 'विचार कि कला' का अनुपम उदाहरण हैजहां हर कलाकृति 'विचार' को प्रकट करती हैचारकोल, ड्राय पेस्टल , पेन और इंक के समन्वय से पेपर पर रचे गए इन चित्रों का भौतिक आकार यद्यपि माध्यम है, किन्तु इनका प्रभाव व्यापक हैइस व्यापकता का आभास तब होता है जब इन्हें देखते हुए हम काफ्का और मुक्तिबोध के रचना संसार की उथल-पुथल भीतरी हलचल का बयान करते हैंइस अर्थ में ये आत्म-चेहरे (इनर फेस ) हैं, यानी कलाकार के आभ्यंतर-प्रदेश का बाह्य-रूपअक्षय संरचनात्मक इस्तर पर चीजों की अल्पता और विचार की बहुलता के चित्रकार रहे हैं, इसीलिये उनकी कला , गर्जन के बजाय धीमी में आत्म-रस की फुहार के साथ संवाद करने लगती हैसंवाद की यह कला ही नहीं, उनके व्यक्तित्व में भी घुली-मिली है। इसीलिए उनसे मिलाने-बतियाने में कलाकृति देखने-सा सुख मिलता है

-अमी चरणसिंह

१०--२०१०



प्रमोद त्रिवेदी जी की एक कविता :

ये यातना की भाषा के वर्णाक्षर हैं

एक महाप्रश्न ,

देख रहा है आपको कातर नजरों से

देख रहा है आपको,

और

आपको


मांग रहा है आपसे

अपने प्रश्न का जवाब

-प्रमोद त्रिवेदी, उज्जैन





Wednesday, March 24, 2010

हूमड़ जैन समाज पर फिल्म : हम हूमड़

पिछले एक साल से मैं जैन समाज की एक प्रगतिशील शाखा हूमड़ जैन समाज पर फिल्म बना रहा था। उस फिल्म को बनाते समय कई अनुभव हुए। जैसे कि एक जाती कि उत्पत्ति और उसके विकास को करीबी से जाना। मैंने देखा कि कई बार हम लोग अपने इतिहास से परिचित नहीं होते। फिल्म के दौरान पता चला कि कई हूमड़ साथी भी बहुत कुछ बातों से अनभिज्ञ हैं। इस दृष्टि से ये फिल्म सफल भी रही। जैसे कि फिल्म बनाने के पहले हूमड़ जैन समाज इंदौर के अध्यक्ष विपिन गांधी और दीपक मेहता ने विचार प्रकट किये थे कि हमारा लक्ष्य है आज की पीढी को अपने जातीय इतिहास से परिचित करना। और मैंने फिल्म में इस बात का पूरा ध्यान रखा कि एक जाती की संस्कृति, उसकी सामाजिक पहचान, उसकी प्रगतिशील विचारधारा को प्रमाणिकता के साथ उभारा जाए। पर बड़ी समस्या ये आई कि आज के भौतिकवादी परिवेश में इतिहास का सरंक्षण देखने को नहीं मिला। इस कारण बहुत कम सामग्री हमारे हाथ आ सकी। पर ये बात बड़ी अच्छी लगी कि विपिन जी और दीपक मेहता जी पुरे प्राणपन से अपना इतिहास खंगालने में लगे रहे। सूरजमल जी जैन, श्रीमती कौशल्या पतंग्या जी, हंसमुख गांधी जी, प्रमोद बंडी जी आदि अनेक हूमड़ साथी आखिर तक लगे रहे। कई बार अपने इतिहास के प्रति अतिरिक्त मोह के कारण कुछ चीजों पर वाद-विवाद-संवाद भी हुआ, कुछ जगहों पर इसी कारण चीजों पर समजौते करने पड़े, पर अपने इतिहास को देखने का एक बड़ा काम इंदौर हूमड़ जैन समाज ने किया। दरअसल भारत के सांस्कृतिक इतिहास का लेखा-जोखा करें तो वो जातियों के इतिहास से अलग नहीं किया जा सकता। हमें भारतीय समाज के विकास को जानने के लिए, जातियों के इतिहास कि तरफ ही जाना होगा। बस केवल उस इतिहास के प्रति मोहान्ध होने से बचना होगा। तब हम अपने सांस्कृतिक इतिहास को प्रमाणिकता के साथ जान समझ सकेंगे। हूमड़ समाज के इतिहास कि सैर करते हुए ये भी महसूस हुआ कि हम अपने जातीय इतिहास को धर्मं के इतिहास से जोड़ लेते हैं। हालाँकि ये आपस में जुड़े हुए हैं, किन्तु जातीय इतिहास संस्कृति और समाज का, परम्पराओं का, मनुष्यों का लेखा-जोखा होता है, जबकि धर्मं का इतिहास आस्था के पहलू पर इतना जोर देता है कि और चीजें गौण हो जाती है। वह अपने खिलाफ जाती हुई चीज को असहनशीलता की हद तक नकारता है, जबकि जातीय इतिहास बताता है कि किस तरह अपने खिलाफ जाती हुई चीजों के बीच संघर्ष करते हुए अपनी अस्मिता का लोहा मनवाता है। हूमड़ समाज अपने प्रगतिशील तत्वों के कारण कई परम्पराओं को छोड़ चूका है, जैसे दहेज़ प्रथा, मृत्यु भोज, आदि आदि। ये उसके जातीय गौरव के प्रगतिशील तत्व है, जिनको रेखांकित किया जाना चाहिए.....
बहरहाल हूमड़ जैन समाज वाली फिल्म में आरम्भ में नमोकार मंत्र के कुछ अंश दिए थे... चूंकि ये फिल्म एक गैर-व्यावसायिक फिल्म थी इसलिए इस सुगम सुमधुर गीत ने फिल्म के आरंभ में एक अलग ही समा बाँध दिया था।
पाठकों को सुनने के लिए नामोकर मंत्र येहाँ दे रहा हूँ। ये मंत्र अनेक गायकों द्वारा गाया गया है। येहाँ आप लता जी की आवाज में नमोकार मंत्र सुनिए।
थोड़े दिनों बाद हूमड़ समाज की फिल्म के कुछ अंश आपको देखने के लिए दे सकूंगा.....
-अमी चरणसिंह २५ मार्च २०१०



बड़े गुलाम अली खान की ठुमरी

प्रसिद्ध गायक येसुदास ने एक गीत गया था फिल्म जनता हवलदार में। गीत के बोल थे 'का करूं सजनी आये ना बालम हमारे'। नेट पर पता मिला की ये एक ठुमरी है और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान ने इसे गाया था। तो आप भी सुनिए वो ठुमरी ....... ठुमरी के बाद एक छोटी सी बंदिश राग मालकौंस में है। इतनी अच्छी संगीत रचना के लिए ब्लागों की दुनिया की सैर करते रहें। फिलहाल सुनिए ये दो रचनाएं :

छाया गांगुली की ठुमरी

छाया गांगुली की ठुमरी, फागुन के दिनों की याद में। सुनिए आप भी :

Friday, February 26, 2010

अक्षय अमेरिया की कला : एक

महातल में मौन चाँदनी
समकालीन भारतीय कला में युवा कलाकारों की उपस्थिति अपने ख़ास अंदाज में ध्यान खींचती है। इनमे कई कलाकार हैं जिनके काम पर बहुत लिखा और कहा गया है। कई के काम पर तो केवल यही लिखा और कहा गया है की उस कलाकार की पेंटिंग्स इतने में बिकी, इतने लाख में बिकी। मैं यहाँ उसकी बात नहीं कर रहा हूँ। रेट -लिस्ट देने का काम करना भी मेरा मकसद नहीं है। हाँ कला पर कुछ-कुछ बतियाने की इच्छा है। यहाँ अपने कुछ पसंदीदा कलाकारों पर ही नहीं, कला की पसंदीदी 'कारगुजारियों' पर भी कुछ लिखने की कौशिश करूंगा।

सबसे पहले , शुरुआत कर रहा हूँ अक्षय अमेरिया से। उज्जैन निवासी अक्षय अमेरिया मेरे प्रिय कलाकार रहे हैं। तो सबसे पहले अक्षय अमेरिया की कला के बारे में चर्चा। उनकी कला पर मैंने चार-पांच बार लिखा है। उसमे से एक लेख 'महातल में मौन चांदनी' यहाँ दे रहा हूँ। ये लेख लखनऊ से प्रकाशित होनेवाली कला पत्रिका 'कलादीर्घा' , संपादक अवधेश मिश्र के १९ वे अंक अक्टूबर २००९ में छापा था। 'कलादीर्घा' प्राप्त करने के लिए संपर्क यहाँ कर सकते हैं : अंजू सिन्हा , १/९५, विनीत खंड, गोमती नगर, लखनऊ-२२६ ०१०। इन्टरनेट पर देखने के लिए लोग ओन करें : डब्लू डब्लू डब्लू .कलादीर्घा.कॉम। कलादीर्घा के आवरण का फोटो भी साथ में दे रहा हूँ। पढ़ें और अपनी टिपण्णी दें, लेखन पर और अक्षय की कला पर भी।

- अमी चरणसिंह
२७-२-२०१०, सुबह ९:२९ बजे






चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: chandni, akshay, ami, mahaatal, maun,

Thursday, February 11, 2010

कुंवे पर चना भूनते हुए

पिछले साल जब हरनावदा गए तो कुंवे पर भी गए। वहां गंभीर सिंह भैया ने हरा चना भून कर बच्चों को खिलाया। चना भूनने में सबने अपना अपना योगदान दिया। छोटा भाई सुरेन्द्र और उसके बच्चों, मेरी बेटी और प्रयाग के बच्चों ने भी हाथ बंटाया। इस कुंवे पर खेलते हुए और काम करते हुए ही मेरा अधिकांश बचपन बीता है। यही नहीं मैंने येहाँ यहाँ आम और अमरुद के पेड़ों की शाखों पर बैठ कर पढ़ा भी बहुत है। कवितांए और कहानियाँ भी लिखी है । दाल बाटी कई बार खाई। और सबसे बड़ी बात तो ये की यहाँ बचपन में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की 'पंचवटी' को पढ़ा था और (शायद) सुमित्रानंदन पन्त की जीवनी भी पढी थी। मेरे जाने तब ही मेरे मन में ये ख्याल आया था की मुझे भी ऐसा ही बनना है। और मैं कविता में या कविता की शब्दावली में सोचने लगा था। ये बात साल १९७५ से ७७ के बीच की होगी। इस समय तक मैं गंभीरसिंह भैया के पास इंदौर पढ़ने आ गया था। और क्योंकि छोटी क्लास में अपने उम्र के बच्चों के बीच गाँव में से मैं अकेला पढ़ने के लिए इंदौर गया था इसलिए अपने को 'ख़ास' समझाने लगा था। तो शायद मेरे मन में 'पंचवटी' और पन्त जी के बारे में पढ़ते हुए 'ख़ास' करने की इच्छा जागी होगी। ये इच्छा जहां जगी थी, वह खेत अभी भी वैसा ही है। वहां माँ के साथ निंदाई गुडाई करते हुए मेरे मन में कवि बनाने की इच्छा पैदा हुयी थी। अब पता नहीं क्या क्या बना हूँ, कविता, कहानी, लेख, सब लिखते हुए फोटोग्राफी और फिल्म बनाने का काम भी कर रहा हूँ। पर लगता है की कुछ भी बन जाऊं पर मेरा खेत और मेरा कुंवा आज भी मेरे कुछ बनने की राह देख रहा है। यदि कुछ बन पाया तो कुंवे और खेत ही मेरी जड़ होंगे, चाहे कहीं रहूँ। ... इसलिए फिलहाल कुंवे और खेत की याद में हरे चने भूनने के कुछ फोटोग्राफ नत्थी कर रहा हूँ। ये फोटो सन २००९ के हैं।
- अमी चरणसिंह
११ फरवरी २०१० इंदौर

Friday, January 29, 2010

ईश्वर आये तो---

पिछली 27 जनवरी से मेरे गाँव हरनावदा में करीब 15 लाख रुपयों के बजट से एक महायज्ञ हो रहा है । जब मैं 1992 में जे एन यू से गाँव आया था तो मैंने योजना बनाई थी की अपने गाँव में विकास के कुछ काम करूंगा। किन्तु गाँव के लोगों ने रूचि नहीं ली। पैसा इकट्ठा नहीं हुआ। पर आज देखता हूँ की धर्मं के नाम पर १५-२० लाख फूंके जा रहे हैं। मठाधीशों के बहकावे में युवा पीठी और पूरा गाँव गाढ़ी कमाई के पैसे लगाने को तैयार है। उन्हें विश्वास है की पुण्य मिलेगा, ईश्वर के दर्शन मिलेंगे। पता नहीं गाँव वालों को क्या मिलेगा। पर पंडितों, पुजारियों, साधुओं और मठाधीशों को अच्छा पैसा मिलेगा। आम की ढेरों लकड़ी फूंकी जाएगी। १० दिनों तक कामकाज ठप्प रहेगा। युवा शक्ति को जीवनभर धर्म की झूठी दुनिया में जीने की प्रेरणा मिलेगी। --- बहरहाल एक कविता श्रंखला ईश्वर को लेकर मैंने लिखी थी। उसकी एक कविता यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। 'ईश्वर आये तो---'। मुलाहिजा फरमाइए।

ईश्वर आये तो---

बहुत कुछ इकठ्ठा हो गया है
शिकवा शिकायत के लिए--
बस इन्तेजार है ईश्वर के आने का
---- जन्मने की पीड़ा -
पनपने का संघर्ष -
गृहस्थी का घर्षण -
जीने की तृष्णा -
हवा की दिशा -
प्रकाश की बदमाशी -
अँधेरे की सघनता -
आकाश की शून्यता -
पानी की आबहीनाता -
आत्मा की अनास्था -
खून की सफेदी ----
सुख की कंगाली में
की गयी बेचैन यात्राओं में
समेटे गए
अनावृत आत्माओं के
संस्मरण---

बहुत कुछ इकठ्ठा हो गया है
शिकवा शिकायत के लिए
ईश्वर आये तो -----
- अमी चरण सिंह

आप इस कविता का पाठ करें तब तक मैं अपने घर के, गाँव वालों के बुलावे पर महायज्ञ में चक्कर लगाकर आता हूँ। यदि ईश्वर मिला तो अपनी सुनाने के लिए। लोटकर बताऊंगा की क्या बात हुई ईश्वर से।